गुरुवार, 5 नवंबर 2015

डॉ. अख़्तर नज़्मी: फिर एक दीया रखना है



किस तरफ कैसी हवा है ये पता रखना है
फिर ये तय करना है किस रुख पे दीया रखना है।

छाँव तो छीन ही गयी हमसे चिनारों वाली
अब इस नीम के साये को घना रखना है।

दिल दुखाने का तरीका मुझे आता है मगर
रास्ता सारी दुआओं का खुला रखना है।

कोई ले जाये उठाकर तो उठा ले जाये
अपनी दहलीज़ पे फिर एक दीया रखना है।

इसका अन्दाज़ा तो हो उसपे गुजरती क्या है
और कुछ रोज मुझे उसको ख़फ़ा रखना है।

क्या तलब किसकी है उसका मुझे अन्दाज़ा है
मैं बता सकता हूँ किस हाथ पे क्या रखना है।

उसके आने का कोई वक़्त नहीं है 'नज़्मी'
रात भर मुझको ये दरवाजा खुला रखना है।   

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