कृष्ण मित्र-
खेत में फसलें दुकानों पर स्वदेशी वस्तुएं
कारखानों में श्रमिक के हाथों ढलती धातुएं।
जो अभी भवितव्य से बिलकुल अनजाने बेखबर
हल चलाते या मशीनों पर खड़े ये कामगार।
झोपड़ी के पास भोले बच्चों की टोलियाँ
गाँव का पीपल सुनाता पँछियों की बोलियाँ।
नीम की दातुन, नमक सेन्धा, कि मिट्टी का घड़ा
चमचमाती चुनरी या घाघरा रेशम जड़ा।
व्व रहा है अब तो डंकल सोचकर पछताओगे
और अपने देश को तुम ढूँढ़ते रह जाओगे।
लाज का घूँघट या पनघट पर बिखरते कहकहे
पाँव के बिछुए, सिन्दुरी वेदियों के फलसफे।
साड़ियाँ वो रेशमी जिनपर बनारस की फिजा
या कि लहँगे जयपुरी सौन्दर्य की लेकर छटा।
काँच की चूड़ियाँ सजीली लहराती-सी वेणियाँ
सास के सम्मुख झुकीं आशीष पाती युवतियाँ।
हाथ के करघे पर बनी खादी पहनते देश को
सन्त गाँधी के स्वदेशी के अमर सन्देश को।
लील जायेगा यह डंकल अब किसे समझाओगे
और अपने देश को तुम ढूँढ़ते रह जाओगे।
बीज बोने के सभी अधिकार भी होंगे हवा
जब जड़ी-बूटी न होगी तो कहाँ होगी दवा।
पेड़-पौधों पर हमारा हक नहीं रह पायेगा
अब फलों का रस बगीचों से विदा हो जायेगा।
हर फसल के भाव अम्ररीका हमें बतलायेगा
और बिन चाहे हमीं से वो हमें ले जायेगा।
दिल हमारा ढूँढ़ता रह जायेगा इन्सान को
लील जायेगा यह ऋण सम्पूर्ण हिन्दुस्तान को।
देश को खायेगा डंकल तुम कहो क्या खाओगे
और अपने देश को तुम ढूँढ़ते रह जाओगे।
सूर के पद या कि मीरा क्र भजन का अन्तरा
और दीपक राग गाता मस्त बैजू बावरा।
सन्त तुलसीदास की संगीतमय चौपाईयाँ
गीतकारों ने बजायीं स्वर सजी शहनाईयाँ।
अब सुनोगे गीत चुनरी-चोलियों को खोलते
पारदर्शी वस्त्र पहने जलपरी को बोलते।
दूरदर्शन पर प्रदर्शित चुम्बनों के सिलसिले
क्या पता ये पीढ़ियों को किस डगर पर ले चले।
रैप गायेगा ये डंकल और तुम शरमाओगे
और अपने देश को तुम ढूँढ़ते रह जाओगे।
जोड़कर व्यापार सारा बोझ हम कर धर गये
छीनकर अधिकार हम पर जो हुकूमत कर गये।
ईस्ट इण्डिया कम्पनी के वो पुराने वायदे
जानता है देश क्या परतंत्रता के फायदे।
अक तो कम्पनियाँ अनेकों आ रही हैं देश में
हो रहा षड़्यंत्र डंकल के नये परिवेश में।
पश्चिमी यह सभ्यता गर आज हावी हो गयी
नीतियाँ ऐसी प्रजा पर फिर प्रभावी हो गयीं।
तो रहेगा सिर्फ डंकल और तुम ढह जाओगे
और अपने देश को तुम ढूँढ़ते रह जाओगे।
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