मंगलवार, 3 फ़रवरी 2015

अर्ज़ किया है- 10



यूसफ़ नदीम-
अपनी दीवार में ख़ुद तूने किए हैं सूराख़ 
झांकने वाली नज़र से तूझे शिक़वा क्या है.

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निदा फ़ाज़ली-
हर तरफ हर जगहा बेशुम्मार आदमी 
फिर भी तन्हाईयों का शिकार आदमी.

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शफ़क अमाम-
पत्थर ने ज़ख़्म देके ये एहसास भी दिया 
इस शहरे-अज़नबी में कोई आशना तो है.

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शाम तमकन्त-
कुछ ऐसे कमनसीब भी हैं इस ज़हान में 
प्यासे खड़े हुए हैं समुन्दर के आस पास.

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हफ़ीज़ जलन्धरी-
हशर के दिन मेरी चुप का माज़रा 
कुछ ना कुछ तुम से भी पूछा जायेगा.

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महेन्द्र अश्क़-
ख़त लिख के और ज़ान मुसीबत में डाल ली 
अब रोज़ इन्तज़ार रहेगा जवाब का.

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मज़रूह सुल्तानपुरी-
बढ़ाई मय जो मोहब्बत से आज साक़ी ने 
यूं कांपे हाथ के सागर भी हम उठा न सके.

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डा. के.के. ऋषी-
जिन्हें होती नहीं दिन की थकावट 
उन्हें क्या रात में आराम होगा.

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