शनिवार, 25 नवंबर 2017

पद्मश्री गोपाल दास 'नीरज'- चलो फिर गाँव का आँगन तलाशें


तेरा बाज़ार तो महँगा बहुत है
लहू फिर क्यों यहाँ सस्ता बहुत है।

सफ़र इससे नहीं तय हो सकेगा
यह रथ परदेश में रुकता बहुत है।

न पीछे से कभी वो वार करता
वो दुश्मन है मगर अच्छा बहुत है।

नहीं क़ाबिल गज़ल के है ये महफ़िल
यहाँ पर सिर्फ़ इक-मतला बहुत है।

चलो फिर गाँव का आँगन तलाशें
नगर तहज़ीब का गन्दा बहुत है।

क़लम को फेंक, माला हाथ में ले
धरम के नाम पर धन्धा बहुत है।

अकेला भी है और मज़बूर भी है
वो हर इक शख़्स जो सच्चा बहुत है।

सुलगते अश्क़ और कुछ ख़्वाब टूटे
ख़ज़ाना इन दिनों इतना बहुत है।

यहाँ तो और भी हैं गीत गायक
मगर नीरज की क्यों चर्चा बहुत है।

1 टिप्पणी:

  1. बहुत ही अच्छी कविता है जो वर्तमान स्थिति को उजागर कराती है l

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