मंगलवार, 3 फ़रवरी 2015

अर्ज़ किया है- 8



मन्सुर अस्मानी- 
कांधे पै सब खुदा को उठाये फिरे मगर 
बन्दे का एहतराम किसी ने नहीं किया.

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इसरार उलहक़ मिज़ाज़- 
"बहोत कुछ और भी है इस ज़हाँ में 
ये दुनिया महज़ ग़म ही ग़म नहीं है."

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शफक अमाम- 
"कुछ न कुछ हर शै पे होगा जबर का रहे-अमल 
काँच के टुकड़ों को मुट्ठी में दबाकर देखना."

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आल अहमद सरूर- 
"साहिल के सकूं से किसे इन्कार है लेकिन 
तूफान से लड़ने में मजा और ही कुछ है!"

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प्रकाशनाथ परवेज- 
"इस तरह ज़श्न मोहब्बत का मना लेते हैं 
याद आते हो तो कुछ अश्क़ बहा लेते हैं."

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अरमान वारसी-
"ना देख अपने ही दीवारो-दर की ज़ेबाइश 
निगाह अपने पड़ोसी के भी मकान पै रख."

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ज़स्तानी जालन्धरी-
"मुझे डर है ना हो माहशर से पहले ही बया माहशर 
के इन्सां बनता जाता है ख़ुदा आहिस्ता-आहिस्ता."

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आतिश-
चुने महीनों में तिनके ग़रीब बुलबुल ने 
मगर नसीब न दो रोज़ आशियाना हुआ.

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