पत्थरों की भी जबां होती है दिल होते हैं
अपने घर के दरो दीवार सजा कर देखो.
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शांति सबा-
आज के दौर में उम्मीदें वफ़ा किससे रखें
धूप में बैठा है खुद पेड़ लगाने वाला.
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फारिग सीमाबी-
सफीना जब तेरे होते हुए भी डूब सकता है
उठाये फिरे तेरे एहसान क्यों ए नाख़ुदा कोई.
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साकी मछलीशहरी-
ढूंढिए तो दूर तक मिलता नहीं इन्सां कोई
देखिए तो बढ़ रही हैं बस्तियाँ चारों तरफ.
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आजाद गुरदासपुरी-
उजड़ी बस्ती में रौशनी कैसी-
जल रहा है किसी का घर शायद.
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अरफान परभनवी-
लोग अन्धेरे को समझ बैठे मुकद्दर अपना
इनके ज़हनों को बदल और उजाला फैला.
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तरब मेरठी-
झुलसें न चलने वाले तरब तेज धूप में
कुछ पेड़ सायादार लगाते हुए चलो.
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शेबा जाफ़री-
बस इस सोच में बैठी हूँ के माहबूब मेरा
अश्क़ की तरह ना आँखों से गिरा दे मुझको.
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