अपनी दीवार में ख़ुद तूने किए हैं सूराख़
झांकने वाली नज़र से तूझे शिक़वा क्या है.
***
निदा फ़ाज़ली-
हर तरफ हर जगहा बेशुम्मार आदमी
फिर भी तन्हाईयों का शिकार आदमी.
***
शफ़क अमाम-
पत्थर ने ज़ख़्म देके ये एहसास भी दिया
इस शहरे-अज़नबी में कोई आशना तो है.
***
शाम तमकन्त-
कुछ ऐसे कमनसीब भी हैं इस ज़हान में
प्यासे खड़े हुए हैं समुन्दर के आस पास.
***
हफ़ीज़ जलन्धरी-
हशर के दिन मेरी चुप का माज़रा
कुछ ना कुछ तुम से भी पूछा जायेगा.
***
महेन्द्र अश्क़-
ख़त लिख के और ज़ान मुसीबत में डाल ली
अब रोज़ इन्तज़ार रहेगा जवाब का.
***
मज़रूह सुल्तानपुरी-
बढ़ाई मय जो मोहब्बत से आज साक़ी ने
यूं कांपे हाथ के सागर भी हम उठा न सके.
***
डा. के.के. ऋषी-
जिन्हें होती नहीं दिन की थकावट
उन्हें क्या रात में आराम होगा.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें