कांधे पै सब खुदा को उठाये फिरे मगर
बन्दे का एहतराम किसी ने नहीं किया.
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इसरार उलहक़ मिज़ाज़-
"बहोत कुछ और भी है इस ज़हाँ में
ये दुनिया महज़ ग़म ही ग़म नहीं है."
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शफक अमाम-
"कुछ न कुछ हर शै पे होगा जबर का रहे-अमल
काँच के टुकड़ों को मुट्ठी में दबाकर देखना."
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आल अहमद सरूर-
"साहिल के सकूं से किसे इन्कार है लेकिन
तूफान से लड़ने में मजा और ही कुछ है!"
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प्रकाशनाथ परवेज-
"इस तरह ज़श्न मोहब्बत का मना लेते हैं
याद आते हो तो कुछ अश्क़ बहा लेते हैं."
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अरमान वारसी-
"ना देख अपने ही दीवारो-दर की ज़ेबाइश
निगाह अपने पड़ोसी के भी मकान पै रख."
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ज़स्तानी जालन्धरी-
"मुझे डर है ना हो माहशर से पहले ही बया माहशर
के इन्सां बनता जाता है ख़ुदा आहिस्ता-आहिस्ता."
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आतिश-
चुने महीनों में तिनके ग़रीब बुलबुल ने
मगर नसीब न दो रोज़ आशियाना हुआ.
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