शनिवार, 22 जुलाई 2017

शिवओम अम्बर: ज़मीं और आसमां




इक तरफ बाग़ी मशालें इक तरफ शाहेज़हां
देखना है यह कहानी ख़त्म होती है कहां।

पत्थरों का ख़ौफ होगा शीशमहलों के लिए
काटकर चट्टान को हमने बनाया है मकां।

बिजलियों पर टिप्पणी भी दूं मुझे यह हक़ नहीं
गो चमन में एक मेरा ही जला है आशियां।

किस बहर में इस नगर की धड़कनें बांधू इधर
हर नज़र में हैं शरारे हर ज़िगर में है धुआं।

पंख जलकर ही रहे संपातियों के स्वप्न के
है ज़मीं आखिर ज़मीं, है आसमां फिर आसमां।

इस गली कैफ़ियत मत पूछिये नाचीज़ की
बेज़ुबानों में कहीं से आ बस है बदज़ुबां। 
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Courtesy: Painting: Christ Of Freedom: https://in.pinterest.com/pin/387942955374416214/

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