क्या पाओगे उस शख़्स की हस्ती को मिटाकर।
जिस शख़्स पे तुम फेंक रहे आज हो पत्थर
कल उस पे गये लोग हैं कुछ फूल चढ़ाकर।
वो मोम की बुलबुल को कहां लेके चला है
यूं आग के दरिया में सफ़ीने को बहाकर।
वो राख से पोशिदा है इक शोला-ए-ग़ैरत
मत रक्खो उसे पांव के नीचे यूं दबाकर।
दर और दरीचों के लिए सोच रहा है
वो कांच की बुनियाद पे दीवार उठाकर।
ज़िक्र उसकी बुलन्दी का किया बज़्म में सबने
चलता था सरेराह जो सर अपना झुकाकर।
आप उसकी रिहाई की दुआ मांग रहे हैं
फंदे को रहा चूम कि जो दार पे जा कर।
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दार- फांसी
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