शनिवार, 24 जनवरी 2015

अर्ज़ किया है- 4



अब्दुल हमीद 'अदम' -
यारब मुआफ कर मेरे इस हुस्ने-सहू को 
यह हुस्ने-सहू, हुस्ने-अक़ीदत की बात थी 
मैंने हरेक चीज को अपना समझ लिया 
मुझको खबर न थी यह तेरी कायनात थी.

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अब्दुल हमीद 'अदम' - 
काश इक रोज तेरे कूचे में 
यूँ गिरूँ लड़खड़ा के मस्त-ओ-खराब 
तू ये पूछे किसी से कौन है यह 
और क्यों पी गया है इतनी शराब.

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उनको गौहर मिले जो डूब के तह तक पहुँचे 
मैं था साहिल पे मुझे रेत के ज़र्रात मिले. 
- असलम मंज़र 

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तमाम उम्र इसी एहतयात में गुजरी 
के आशियाना किसी शाखे गुल पै बार न हो. 
- माहशर लखनवी

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जानता हूँ मेरे बालो पर नहीं तो क्या हुआ 
उस बुलन्दी तक मुझे मेरा खुदा ले जायेगा. 
- आलम बलयावी

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खुशी के साथ रंजो-ग़म का भी एहसास लाज़म है 
गुलों की शाख पर पत्ते नहीं काँटे भी होते हैं. 
-साजन पेशावरी

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हर शख्स जानता है फ़सादों का दौर है 
फिर भी बनाए जाते रहे घर नए-नए. 
- शहबर सिकन्दरपुरी

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