रविवार, 25 अक्तूबर 2015

अर्ज़ किया है- 13



डा. के.के. ऋषि-
खुदा बनने की कोशिश कर रहा है 
जिसे इन्सां बनाया था खुदा ने.

सलाहुद्दीन अयूबी-
इनसे लड़ते हुए इक उम्र गुजारी मैंने 
कौन घबराता है बिफरे हुए तूफानों से.

अज़म ग़ाज़ीपुरी-
ग़रीबी और अमीरी की फ़कत इतनी कहानी है 
ग़रीबी इक बुढ़ापा है अमीरी इक जवानी है.

अजम गाजीपुरी-
देखो जो मोहब्बत से पत्थर भी पिघल जायें 
अख़लास की दौलत ही सबसे बड़ी दौलत है.

डा. धर्मेन्द्रनाथ-
तूफान जो बाहर से आयेगा निपट लेंगे 
डर है के चिरागों को गुल कर दें न परवाने.

सलाहुद्दीन अयूबी-
ख़ौफ दुश्मन से न डर है कोई बेग़ानों से 
कोई ख़तरा है तो अपने ही निगहबानों से.

नसीम सलीमपुरी-
मुनहस्सर है अपने कर दारो अमल पर जिन्दगी 
आप खुद अपना बनाता है मुकद्दर आदमी.

डा. के.के. ऋषि-
सोचना तो ठीक भी लाज़म भी है
सोचते रहना मगर अच्छा नहीं.

आलम कुरैशी-
आँधियों के रुख पै जो जलते हुए रह जायेंगे 
वो चिराग हर दौर में खुद राहबर कहलायेंगे.

अरमान वारसी-

जिसने मनसूबे फ़सादों के बनाये शहर में 
क़ौमी यक जहती में इसका नाम अखबारों में था.

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