रविवार, 25 अक्तूबर 2015

पद्मश्री गोपाल दास 'नीरज': इन्सान का दिल




जब भी इस शहर में कमरे से मैं बाहर निकला 
मेरे स्वागत को हरेक जेब से खंजर निकला।
तितलियों-फूलों का जहाँ पर लगता था मेला 
प्यार का गाँव वो बारूद का दफ्तर निकला।
डूबकर जिसमें उबर पाया न मैं जीवन-भर 
एक आँसू का वो क़तरा तो समन्दर निकला।
मेरे होंठों पे दुआ उसकी ज़ुबां पर गाली 
जिसके अन्दर जो छुपा था वही बाहर निकला।
ज़िन्दगी-भर मैं जिसे देखके इतराता रहा 
मेरा सब रुप वो मिट्टी की धरोहर निकला।
वो तेरे द्वार पे हर रोज ही आया लेकिन 
नींद टूटी तेरी जब हाथ से अवसर निकला।
रूखी रोटी भी जिसने सदा बाँट के खायी 
वो भिखारी तो शहंशाहों से बढ़कर निकला।
क्या अजब चीज है इन्सान का दिल भी नीरज 
मोम निकला ये कभी तो कभी पत्थर निकला।

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