रविवार, 25 अक्तूबर 2015

अर्ज़ किया है- वसीम बरेलवी


लहू न हो तो कलम तरज़ुमा नहीं होता
हमारे दौर में आँसू ज़बां नहीं होता

जहाँ रहेगा वहीं रौशनी लुटायेगा
किसी चराग़ का अपना मकां नहीं होता

ये किस मक़ाम पे लायी है मेरी तनहाई
कि मुझसे आज कोई बदगुमां नहीं होता।

मैं उसको भूल गया हूँ ये कौन मानेगा
किसी चराग़ के बस में धुआँ नहीं होता।

वसीम सदियों की आँखों से देखिये मुझको
वो लफ्ज़ हूँ जो कभी दास्तां नहीं होता।

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